हाल ही में कहीं पढ़ा था - सुबह की चाय से शुरू हुआ ताज़ा अखबार रात तक रद्दी में तब्दील हो जाता है। अब देखिए .... अखबार चाय के साथ देशभर की खबरें बताता है, और उसके बाद वही अखबार कुछ लोगों के लिए बाथरूम में समय बिताने का सबसे अच्छा साधन साबित होता है। तो कहीं यही अखबार बस अड्डे या रेलवे प्लेटफार्म पर चादर की जगह बिछाकर सोने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।सब्ज़ी काटने , पूरी छानकर निकालने या फिर पानी , तेल वगैरह गिर जाने पर उसे साफ करने आदि का काम भी इसी अखबार से ही किया जाता है। यहाँ तक कि होटलों में भी किचन टाॅवेल की जगह यह अखबार अपना किरदार बख़ूबी निभाता है । हम कह सकते हैं कि इस अखबार के दो पहलू हैं और दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। इसके बाद शुरू होती है कहानी अखबार के रद्दी बनने की।इन सब प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद जब ये अखबार कबाड़ी वाला ले जाता है तो वहाँ इसका हाल बद से बदहाल हो जाता है। हम सभी जानते हैं कि एक कबाड़ी वाला अपना सामान किस तरह और कैसी जगहों पर रखता है।
आइए अब देखें -- रद्दी अखबार के खरीदार कौन लोग होते हैं ? स्टेशन , बस अड्डे , सड़क या बाज़ारों में खड़े हुए खोमचे वाले आदि। लाखों गरीब परिवारों की महिलाएँ या बच्चे अपने परिवार का पेट पालने के लिए यहीं केे खरीदे हुए अखबारों से लिफाफे बनाते हैं , जो बेचे जाते हैं मिठाई , परचून की दुकानों के साथ - साथ खोमचे वालों को। सोचकर देखिए - क्या खाने की चीजों के लिए इन लिफाफों का इस्तेमाल सही है ? --
( 1 ) इन्हीं लिफाफों में हम समोसा , खस्ता , पूरी , जलेबी, भेलपूरी आदि तो खाते ही हैं , कहीं - कहीं तो कटे हुए फल भी दिए जाते हैं। गन्दे अखबार से बने इन लिफाफों में मिलने वाली खाद्य सामग्री स्वास्थ्य के लिए कितनी सुरक्षित होगी ? यहाँ विशेष तौर पर कहना चाहूँगी कि मैं मात्र एक आम वर्ग की बात कर रही हूँ खास वर्ग की नहीं क्यों कि हमारे देश में आम वर्ग का ही प्रतिशत ज़्यादा है।
( 2 ) अखबारों में इस्तेमाल होने वाली स्याही। आपको ध्यान होगा कि जो सामान ज़रा भी गीला होता है खासकर पूरी जलेबी आदि , उस पर तो अखबार में छपे अक्षर तक छप जाते हैं। अखबार की इस स्याही में कुछ ऐसे तत्व हैं जो मानव जाति के लिए काफी खतरनाक हैं। जैसे -
आजकल खाद्यपदार्थ की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। किस चीज़ में कितना प्रोटीन , आयरन एवं न्यूट्रीशियन है , अधिक तेल या कैलोरीज़ तो नहीं है आदि आदि। यह सब तो हम लोग सोचते हैं किन्तु यह नहीं सोचते कि बाहर जो खा रहें हैं उसे किस प्रकार दिया गया है। साधारणतया street halker सामान अखबार से बने पैकेट या सीधे अखबार पर ही रख कर दे देते हैं।क्या आप जानते हैं -- जब गरम पकौड़ी , समोसा , कबाब , परांठा , जलेबी या गीली भेलपूरी इत्यादि जैसे ही अखबार पर रक्खी जाती है , तो गरम तेल की वजह से तेल एवं अखबार की इंक दोनों के मध्य एक रासायनिक प्रक्रिया होती है जिसकी वज़ह से बहुत तेजी के साथ इंक में समाहित कुछ खतरनाक chemical तेल में पहुँच जाते हैं , जो हमें दिखाई नहीं पड़ते और उसे हम खा लेते हैं । इंक में मौजूद कुछ chemical एवं उसके दुष्प्रभाव इस प्रकार हैं - कुछ organic chemical जिन्हें arylamines कहा जाता है जैसे - Benzidine , Naphthylamine , Aminobiphenyl आदि chemical अतिसंवेदन रूप से कारण बनते हैं Bladder और Lung cancer के लिए । इसके अतिरिक्त कुछ hazardous chemicals होते हैं जिनकी वज़ह से तीव्र सिरदर्द , pulse rate का बढ़ना , शरीर में ऊर्जा का लुप्तप्राय: होना , skin irritation , nervous system पर आघात होना । सार रूप में ink की वजह से मृत्यु नहीं हो सकती है पर ऊपर दी गई कुछ बीमारियों की चपेट में व्यक्ति ज़रूर आ सकता है । The food and agriculture organisation / world health organisation joint expert committee का यह मानना है कि food additives में MOSH की safe upper limit होती है 0.6 mg/kg . इसकी कम या ज़्यादा मात्रा वृद्ध , युवा , बच्चे एवं अन्य लोगों में जिनमें , vital organs एवं immune system पहले से ही दुष्प्रभावित हों , कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है । कृपया पूर्ण जानकारी हेतु निम्न site पर log on करें --
Healthy eating - watch out for poisouons packaging published in DAWN sunday magazine , may 25 , 2014 . Queries to Dawn.com's editorial team
ये समस्त जानकारियाँ Net के साथ साथ Dr. Sangeeta Bhatia , medical officer, National Homeopethic Medical College , Lucknow द्वारा प्राप्त हुयी हैं। साभार धन्यवाद।
ये तो थे मानव जाति पर अखबार एवं उसकी स्याही से होने वाले नुकसान। अब जानते हैं कि किस तरह के पेपर से recycling के बाद कौन सा पेपर बनता है।
1 - अखबार से अखबार का कागज़ ही बनता है।
2 - copy से copy का पेपर ।
3 - किताब , loose n waste पन्ने , card , juice carton , मिठाई के डिब्बे इत्यादि की sooping करी जाती है अर्थात लुग्दी बनाई जाती है जिससे जिल्द तैयार होती है । इसी जिल्द से काॅपी किताब के मोटे hard cover , गत्ते की sheet , मिठाई और जूस इत्यादि के डिब्बे तैयार किए जाते हैं। घबराईए नहीं खाने पीने से सम्बन्धित जितने भी डिब्बे तैयार किए जाते हैं , उनमें अन्दर से foil sheet या cling film ( जिससे सैन्डविच या अन्य खाने का सामान wrap किया जाता है ) को चढ़ाया जाता है जिससे खाद्य पदार्थ जिल्द के सम्पर्क में ना आने पाएं ।
4 - Brown paper sooping की गई जिल्द से ही बनता है । उसके लिए सबसे पहले अखबार से ink को अलग किया जाता है और तब जिल्द तैयार की जाती है । इसलिए खाद्य सामग्री के लिए brown paper के लिफाफे पूर्णतया उपयुक्त हैं ।
5 - लिफाफे और डिब्बे खाद्य पदार्थ के योग्य हैं या नहीं , यह जानने के लिए उन्हें बीच से फाड़ेगें तो वो फटेगें ही नहीं । इस article में recycling से जुड़े जितने भी तथ्य आपके समक्ष रख पायी हूँ वो हिन्दुस्तान के recycling wing के collection center में कार्यरत श्री अमित कुमार भगत द्वारा प्राप्त हुयी हैं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
इतनी सारी जानकारी के बाद हम चुप तो नहीं बैठ सकते, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा और करना भी हमें और आपको ही है। बस करना इतना ही होगा कि थोड़ी सी जागरूकता पैदा करनी होगी स्वयं के साथ - साथ समाज में भी। हमें ये काम इसलिए भी करना है कि जिस आम आदमी की बात मैं कर रहीं हूँ वो खुद अपने लिए ये आवाज़ नहीं उठा सकता । उसे तो दो व़क्त की रोटी मिल जाए वही बहुत है। ये ज़िम्मेदारी हमें आपको ही निभानी होगी। करना क्या है ? - हमें आपको न करना है वहाँ पर, जहाँ हमें खाने का सामान अखबारों में दिया जा रहा है , साथ ही दुकानदारों को पत्ते वाले दोने , disposable item एवं brown paper के इतेमाल के लिए भी समझाना होगा। जागरूकता पैदा करने के लिए अपने घर , घर की नौकरानी , अपने दोस्तों एवं मिलने वालों को इसकी जानकारी दें । साथ ही उनसे कहें कि अपने जानने वालों को वो लोग भी बताएं । यदि हम किन्हीं संस्थाओं को जानते हैं तो उन्हें बताकर भी पहले कदम की शुरूआत कर सकते हैं। उन्हें भी इससे जोड़ें ।धीरे - धीरे कुछ तो बदलेगा ही। ज़ाहिर है हमारी सरकार को तो इसमें आना ही पड़ेगा , उसके बिना तो यह बदलाव सम्भव है ही नहीं किन्तु हर काम सरकार की ही ज़िम्मेदारी हो ऐसा सोचना तो गलत होगा । इसलिए पहल हमीं से हो तो क्या बुरा है। हम पूरे देश की नहीं पर मात्र अपने शहर के वारे में तो सोच ही सकते हैं।
कुछ साल पहले रेलमंत्री बनते ही श्री लालू प्रसाद यादव ने ट्रेनों में कुल्हड़ में चाय बेचने का सख़्त नियम पारित किया। काँच के गिलास या disposable में चाय पर पाबन्दी के साथ जुर्माना भी लगा दिया , इससे प्रत्यक्ष तौर पर जो लाभ मिले वो थे --
1) पूर्णतया hygenic
2) मिट्टी के कुल्हड़ मिट्टी में मिल गए
3) पेपर या प्लास्टिक से एकत्रित होने वाले कूड़े में कमी
4) असंख्य व्यक्तियों को रोजगार का मिलना
इस योजना का ना चल पाना सरकार या लालू जी का नुकसान नहीं बल्कि हमारा नुकसान है। ख़ैर ....लालू जी तो बधाई के पात्र हैं ही। इसी तरह ऐसी ही एक मुहिम चलायी है हिन्दुस्तान अखबार , लखनऊ , उत्तर प्रदेश ने । पुरानी रद्दी को recycle करके पुनः अखबार और काॅपी किताबों के लिए कागज़ बनाने की । इसके लिए हिन्दुस्तान अखबार वाले घर - घर जाकर पुरानी रद्दी खरीदते हैं वो भी कितने आसान तरीके से। पूरी रद्दी को एक साथ अपने साथ लाई डोरी से बाँधकर काँटे से उठा लेते हैं ।अब आप मीटर पर खुद ही पढ़ लीजिए । हाँ .... ये सही है कि एक कबाड़ीवाला एक किलो रद्दी का भाव लगाता है 12 रूपए किलो जबकि ये लोग देते हैं मात्र 9 रूपए किलो , परन्तु सोचिए आपका समय, आपकी ऊर्जा और साथ ही उससे की गई माथापच्ची एवं 10 किलो का 8 किलो बना देना वो भी आपकी आँखों के सामने क्या आपको परेशान नहीं करता है । अब हमें चाहिए कि 12 रूपए के फेर से ऊपर उठें और स्वहित को पीछे छोड़कर जनहित में कुछ सोचें । यकीन मानिए अखबार में दिए खाने को ना करके और घर की रद्दी को recycle के लिए देकर , हम घर बैठे - बैठे अपने देश की बहुत बड़ी सेवा कर सकते हैं। मसलन ----
1) पेड़ों की छाल से बनाए जाने वाले कागज़ की काफी ज़रूरत recycle हुए कागज़ से पूरी होने लगेगी तो शर्तिया पेड़ों की कटाई में कमी आएगी।
2) कूड़ेदान में फेका गया कागज़ गलकर सड़ जाता है । Recycle नहीं हो सकता इसलिए बेवजह कूड़ेदान में कागज़ न फेकें।
3) अगर परचून या मिठाई की दुकानों पर brown paper के लिफाफों में सामान मिलने लगे तो वो सामान खाने योग्य होगा ।
4) बस या रेलवे स्टेशन अथवा बाज़ारों में जो खोमचे वाले बैठते हैं , वो पत्ते वाले दोनों का इस्तेमाल करें तो अन्य किसी भी चीज़ से ये सस्ते पड़ेगें साथ ही हज़ारों पत्ते पेड़ों से झड़कर मिट्टी में मिल जाते हैं , उनका सही इस्तेमाल भी हो जाएगा ।
5) झूठे पत्तल - दोनों को किसी भी जंगल में फेक दिया जाए तो वो स्वतः ही मिट्टी में मिलकर खाद बन जाएंगें , अर्थात हरियाली बढ़ेगी तो पर्यावरण शुद्ध होगा।
6) सबसे अहम् बात कि स्वच्छ एवं शुद्ध खानपान के साथ - साथ असंख्य बेरोज़गारों को रोज़गार मिलेगा ।
वैसे तो recycling की मुहिम हिन्दुस्तान अखबार , उत्तर प्रदेश अपने GO GREEN Project जो कि पर्यावरण से सम्बन्धित है, पिछले 4 वर्षों से लखनऊ में चला रहा है किन्तु मैनें अपने इस artical को recycling से जोड़कर एक आम आदमी के स्वास्थ्य को मद्देनज़र रखते हुए लिखा है। मेरी प्रत्येक अखबार से अपील है कि वो भी देशहित में ऐसी मुहिम को अंजाम दें और अपना यह कदम पूरे भारतवर्ष के लिए उठाएँ। फिलहाल तो इतना ही कहूँगीं कि सभी लोग हिन्दुस्तान अखबार से अपने अपने शहर के लिए इस सुविधा की माँग करें क्यों कि अभी यह सुविधा मात्र लखनऊ शहर में ही चल रही है।
दोस्तों ! अगर मेरी बात तथ्यपूर्ण हो और आपको सही लगी हो, तो आईए अपने देशहित में एक कदम हम भी बढ़ाएं। अपने घर से शुरूआत करें। अपने घर की रद्दी recycling हेतु दें। लोगों को इससे जोड़ें और जानकारी दें। साथ ही जो जिस प्रकार से सक्षम एवं समर्थ हैं वो इस बात को आगे तक ले जाने में कृपया अपना योगदान अवश्य दें। आपके विचारों एवं सुझावों का स्वागत है। आपके सुझाव मेरे लिए प्रेरणादायक होंगें। मेरा email ID - neelima.64.kumar.@gmail.com
लखनऊ निवासियों की सुविधा हेतु सम्पर्क नम्बर है -
Hindustan off. - 9235402342
अमितकुमार - 9336628342
ये गाना तो आपने सुना ही होगा -
साथी हाथ बढ़ाना ,
एक अकेला थक जाएगा
मिलकर साथ निभाना ,
साथी हाथ बढ़ाना
Neelima Kumar
आइए अब देखें -- रद्दी अखबार के खरीदार कौन लोग होते हैं ? स्टेशन , बस अड्डे , सड़क या बाज़ारों में खड़े हुए खोमचे वाले आदि। लाखों गरीब परिवारों की महिलाएँ या बच्चे अपने परिवार का पेट पालने के लिए यहीं केे खरीदे हुए अखबारों से लिफाफे बनाते हैं , जो बेचे जाते हैं मिठाई , परचून की दुकानों के साथ - साथ खोमचे वालों को। सोचकर देखिए - क्या खाने की चीजों के लिए इन लिफाफों का इस्तेमाल सही है ? --
( 1 ) इन्हीं लिफाफों में हम समोसा , खस्ता , पूरी , जलेबी, भेलपूरी आदि तो खाते ही हैं , कहीं - कहीं तो कटे हुए फल भी दिए जाते हैं। गन्दे अखबार से बने इन लिफाफों में मिलने वाली खाद्य सामग्री स्वास्थ्य के लिए कितनी सुरक्षित होगी ? यहाँ विशेष तौर पर कहना चाहूँगी कि मैं मात्र एक आम वर्ग की बात कर रही हूँ खास वर्ग की नहीं क्यों कि हमारे देश में आम वर्ग का ही प्रतिशत ज़्यादा है।
( 2 ) अखबारों में इस्तेमाल होने वाली स्याही। आपको ध्यान होगा कि जो सामान ज़रा भी गीला होता है खासकर पूरी जलेबी आदि , उस पर तो अखबार में छपे अक्षर तक छप जाते हैं। अखबार की इस स्याही में कुछ ऐसे तत्व हैं जो मानव जाति के लिए काफी खतरनाक हैं। जैसे -
आजकल खाद्यपदार्थ की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। किस चीज़ में कितना प्रोटीन , आयरन एवं न्यूट्रीशियन है , अधिक तेल या कैलोरीज़ तो नहीं है आदि आदि। यह सब तो हम लोग सोचते हैं किन्तु यह नहीं सोचते कि बाहर जो खा रहें हैं उसे किस प्रकार दिया गया है। साधारणतया street halker सामान अखबार से बने पैकेट या सीधे अखबार पर ही रख कर दे देते हैं।क्या आप जानते हैं -- जब गरम पकौड़ी , समोसा , कबाब , परांठा , जलेबी या गीली भेलपूरी इत्यादि जैसे ही अखबार पर रक्खी जाती है , तो गरम तेल की वजह से तेल एवं अखबार की इंक दोनों के मध्य एक रासायनिक प्रक्रिया होती है जिसकी वज़ह से बहुत तेजी के साथ इंक में समाहित कुछ खतरनाक chemical तेल में पहुँच जाते हैं , जो हमें दिखाई नहीं पड़ते और उसे हम खा लेते हैं । इंक में मौजूद कुछ chemical एवं उसके दुष्प्रभाव इस प्रकार हैं - कुछ organic chemical जिन्हें arylamines कहा जाता है जैसे - Benzidine , Naphthylamine , Aminobiphenyl आदि chemical अतिसंवेदन रूप से कारण बनते हैं Bladder और Lung cancer के लिए । इसके अतिरिक्त कुछ hazardous chemicals होते हैं जिनकी वज़ह से तीव्र सिरदर्द , pulse rate का बढ़ना , शरीर में ऊर्जा का लुप्तप्राय: होना , skin irritation , nervous system पर आघात होना । सार रूप में ink की वजह से मृत्यु नहीं हो सकती है पर ऊपर दी गई कुछ बीमारियों की चपेट में व्यक्ति ज़रूर आ सकता है । The food and agriculture organisation / world health organisation joint expert committee का यह मानना है कि food additives में MOSH की safe upper limit होती है 0.6 mg/kg . इसकी कम या ज़्यादा मात्रा वृद्ध , युवा , बच्चे एवं अन्य लोगों में जिनमें , vital organs एवं immune system पहले से ही दुष्प्रभावित हों , कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है । कृपया पूर्ण जानकारी हेतु निम्न site पर log on करें --
Healthy eating - watch out for poisouons packaging published in DAWN sunday magazine , may 25 , 2014 . Queries to Dawn.com's editorial team
ये समस्त जानकारियाँ Net के साथ साथ Dr. Sangeeta Bhatia , medical officer, National Homeopethic Medical College , Lucknow द्वारा प्राप्त हुयी हैं। साभार धन्यवाद।
ये तो थे मानव जाति पर अखबार एवं उसकी स्याही से होने वाले नुकसान। अब जानते हैं कि किस तरह के पेपर से recycling के बाद कौन सा पेपर बनता है।
1 - अखबार से अखबार का कागज़ ही बनता है।
2 - copy से copy का पेपर ।
3 - किताब , loose n waste पन्ने , card , juice carton , मिठाई के डिब्बे इत्यादि की sooping करी जाती है अर्थात लुग्दी बनाई जाती है जिससे जिल्द तैयार होती है । इसी जिल्द से काॅपी किताब के मोटे hard cover , गत्ते की sheet , मिठाई और जूस इत्यादि के डिब्बे तैयार किए जाते हैं। घबराईए नहीं खाने पीने से सम्बन्धित जितने भी डिब्बे तैयार किए जाते हैं , उनमें अन्दर से foil sheet या cling film ( जिससे सैन्डविच या अन्य खाने का सामान wrap किया जाता है ) को चढ़ाया जाता है जिससे खाद्य पदार्थ जिल्द के सम्पर्क में ना आने पाएं ।
4 - Brown paper sooping की गई जिल्द से ही बनता है । उसके लिए सबसे पहले अखबार से ink को अलग किया जाता है और तब जिल्द तैयार की जाती है । इसलिए खाद्य सामग्री के लिए brown paper के लिफाफे पूर्णतया उपयुक्त हैं ।
5 - लिफाफे और डिब्बे खाद्य पदार्थ के योग्य हैं या नहीं , यह जानने के लिए उन्हें बीच से फाड़ेगें तो वो फटेगें ही नहीं । इस article में recycling से जुड़े जितने भी तथ्य आपके समक्ष रख पायी हूँ वो हिन्दुस्तान के recycling wing के collection center में कार्यरत श्री अमित कुमार भगत द्वारा प्राप्त हुयी हैं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
इतनी सारी जानकारी के बाद हम चुप तो नहीं बैठ सकते, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा और करना भी हमें और आपको ही है। बस करना इतना ही होगा कि थोड़ी सी जागरूकता पैदा करनी होगी स्वयं के साथ - साथ समाज में भी। हमें ये काम इसलिए भी करना है कि जिस आम आदमी की बात मैं कर रहीं हूँ वो खुद अपने लिए ये आवाज़ नहीं उठा सकता । उसे तो दो व़क्त की रोटी मिल जाए वही बहुत है। ये ज़िम्मेदारी हमें आपको ही निभानी होगी। करना क्या है ? - हमें आपको न करना है वहाँ पर, जहाँ हमें खाने का सामान अखबारों में दिया जा रहा है , साथ ही दुकानदारों को पत्ते वाले दोने , disposable item एवं brown paper के इतेमाल के लिए भी समझाना होगा। जागरूकता पैदा करने के लिए अपने घर , घर की नौकरानी , अपने दोस्तों एवं मिलने वालों को इसकी जानकारी दें । साथ ही उनसे कहें कि अपने जानने वालों को वो लोग भी बताएं । यदि हम किन्हीं संस्थाओं को जानते हैं तो उन्हें बताकर भी पहले कदम की शुरूआत कर सकते हैं। उन्हें भी इससे जोड़ें ।धीरे - धीरे कुछ तो बदलेगा ही। ज़ाहिर है हमारी सरकार को तो इसमें आना ही पड़ेगा , उसके बिना तो यह बदलाव सम्भव है ही नहीं किन्तु हर काम सरकार की ही ज़िम्मेदारी हो ऐसा सोचना तो गलत होगा । इसलिए पहल हमीं से हो तो क्या बुरा है। हम पूरे देश की नहीं पर मात्र अपने शहर के वारे में तो सोच ही सकते हैं।
कुछ साल पहले रेलमंत्री बनते ही श्री लालू प्रसाद यादव ने ट्रेनों में कुल्हड़ में चाय बेचने का सख़्त नियम पारित किया। काँच के गिलास या disposable में चाय पर पाबन्दी के साथ जुर्माना भी लगा दिया , इससे प्रत्यक्ष तौर पर जो लाभ मिले वो थे --
1) पूर्णतया hygenic
2) मिट्टी के कुल्हड़ मिट्टी में मिल गए
3) पेपर या प्लास्टिक से एकत्रित होने वाले कूड़े में कमी
4) असंख्य व्यक्तियों को रोजगार का मिलना
इस योजना का ना चल पाना सरकार या लालू जी का नुकसान नहीं बल्कि हमारा नुकसान है। ख़ैर ....लालू जी तो बधाई के पात्र हैं ही। इसी तरह ऐसी ही एक मुहिम चलायी है हिन्दुस्तान अखबार , लखनऊ , उत्तर प्रदेश ने । पुरानी रद्दी को recycle करके पुनः अखबार और काॅपी किताबों के लिए कागज़ बनाने की । इसके लिए हिन्दुस्तान अखबार वाले घर - घर जाकर पुरानी रद्दी खरीदते हैं वो भी कितने आसान तरीके से। पूरी रद्दी को एक साथ अपने साथ लाई डोरी से बाँधकर काँटे से उठा लेते हैं ।अब आप मीटर पर खुद ही पढ़ लीजिए । हाँ .... ये सही है कि एक कबाड़ीवाला एक किलो रद्दी का भाव लगाता है 12 रूपए किलो जबकि ये लोग देते हैं मात्र 9 रूपए किलो , परन्तु सोचिए आपका समय, आपकी ऊर्जा और साथ ही उससे की गई माथापच्ची एवं 10 किलो का 8 किलो बना देना वो भी आपकी आँखों के सामने क्या आपको परेशान नहीं करता है । अब हमें चाहिए कि 12 रूपए के फेर से ऊपर उठें और स्वहित को पीछे छोड़कर जनहित में कुछ सोचें । यकीन मानिए अखबार में दिए खाने को ना करके और घर की रद्दी को recycle के लिए देकर , हम घर बैठे - बैठे अपने देश की बहुत बड़ी सेवा कर सकते हैं। मसलन ----
1) पेड़ों की छाल से बनाए जाने वाले कागज़ की काफी ज़रूरत recycle हुए कागज़ से पूरी होने लगेगी तो शर्तिया पेड़ों की कटाई में कमी आएगी।
2) कूड़ेदान में फेका गया कागज़ गलकर सड़ जाता है । Recycle नहीं हो सकता इसलिए बेवजह कूड़ेदान में कागज़ न फेकें।
3) अगर परचून या मिठाई की दुकानों पर brown paper के लिफाफों में सामान मिलने लगे तो वो सामान खाने योग्य होगा ।
4) बस या रेलवे स्टेशन अथवा बाज़ारों में जो खोमचे वाले बैठते हैं , वो पत्ते वाले दोनों का इस्तेमाल करें तो अन्य किसी भी चीज़ से ये सस्ते पड़ेगें साथ ही हज़ारों पत्ते पेड़ों से झड़कर मिट्टी में मिल जाते हैं , उनका सही इस्तेमाल भी हो जाएगा ।
5) झूठे पत्तल - दोनों को किसी भी जंगल में फेक दिया जाए तो वो स्वतः ही मिट्टी में मिलकर खाद बन जाएंगें , अर्थात हरियाली बढ़ेगी तो पर्यावरण शुद्ध होगा।
6) सबसे अहम् बात कि स्वच्छ एवं शुद्ध खानपान के साथ - साथ असंख्य बेरोज़गारों को रोज़गार मिलेगा ।
वैसे तो recycling की मुहिम हिन्दुस्तान अखबार , उत्तर प्रदेश अपने GO GREEN Project जो कि पर्यावरण से सम्बन्धित है, पिछले 4 वर्षों से लखनऊ में चला रहा है किन्तु मैनें अपने इस artical को recycling से जोड़कर एक आम आदमी के स्वास्थ्य को मद्देनज़र रखते हुए लिखा है। मेरी प्रत्येक अखबार से अपील है कि वो भी देशहित में ऐसी मुहिम को अंजाम दें और अपना यह कदम पूरे भारतवर्ष के लिए उठाएँ। फिलहाल तो इतना ही कहूँगीं कि सभी लोग हिन्दुस्तान अखबार से अपने अपने शहर के लिए इस सुविधा की माँग करें क्यों कि अभी यह सुविधा मात्र लखनऊ शहर में ही चल रही है।
दोस्तों ! अगर मेरी बात तथ्यपूर्ण हो और आपको सही लगी हो, तो आईए अपने देशहित में एक कदम हम भी बढ़ाएं। अपने घर से शुरूआत करें। अपने घर की रद्दी recycling हेतु दें। लोगों को इससे जोड़ें और जानकारी दें। साथ ही जो जिस प्रकार से सक्षम एवं समर्थ हैं वो इस बात को आगे तक ले जाने में कृपया अपना योगदान अवश्य दें। आपके विचारों एवं सुझावों का स्वागत है। आपके सुझाव मेरे लिए प्रेरणादायक होंगें। मेरा email ID - neelima.64.kumar.@gmail.com
लखनऊ निवासियों की सुविधा हेतु सम्पर्क नम्बर है -
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अमितकुमार - 9336628342
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साथी हाथ बढ़ाना ,
एक अकेला थक जाएगा
मिलकर साथ निभाना ,
साथी हाथ बढ़ाना
Neelima Kumar
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