हे तमस नाशिनी , दीप स्वामिनी
दीपावली !
स्वर्ग की मेनका
इस धरा की शकुन्तला तुम ,
मदिरालय की हाला
शिवगंगे का नीर तुम,
माँ की ममता
इन नयनों का नूर तुम,
दुल्हन का श्रृंगार - रूप
कवि - कल्पना हो तुम।
आज
टिमटिमाते तारों जड़ी
चादर से उतर
लरजते महावरी पैरों से
तुमने
धरा के हृदय - स्थल को छुआ है।
हमने भी राह में
बिछाये हैं
पलकों के दरीचे।
महावरी पैरों की छाप
हमारे आँगन भी लाना ।
हृदय तमस को दूर कर
ज्योति - पुँज जगाना
तन - मन भरमाना
तन - मन भरमाना।
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