Monday 23 November 2015

अमन के रंग : सरहद के उस पार या इस पार , इन्सानियत : सबसे बड़ा धर्म

" अमन के रंग " एक  Indo - Pak exibition जो इस व़क्त चल रही है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के इन्दिरा गाँधी प्रतिष्ठान में । एक अति सुन्दर प्रयास है दो देशों के बीच अपनी कला एवं संस्कृति को साझा कर एक दूसरे के प्रति अपनी भावनाओं को प्रकट करने का । साधुवाद ।
         अपने कुछ अनुभव आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ। प्रतिष्ठान के प्रांगण में प्रवेश करते ही हिन्द - पाक के ज़ाएके की खुश्बू , बेहतरीन नक्काशी , ख़ूबसूरत कारीगरी ने मन मोह लिया। या यूँ कहें कि हिन्द - पाक की सभ्यता एवं संस्कृति की भव्यता का सुन्दर संगम वहाँ देखने को मिला। ये तो वो था जो मेरी आंखों और मन को भाया मगर किसी ने मेरे दिल को छुआ । मैं बात कर रहीं हूँ कराँची से आई मोहतरमा असमां रहमान जी की। सबसे पहले उन्हीं से मुलाकात हुयी। उन्होंने अपनी सोच को अपने हाथों से बनाए गहनों में पिरोया था , जो याद दिला रहा था उन रानी , महारानियों एवं सुन्दरियों की , जो फूलों के गहनों से अपने सौन्दर्य को संवारा करती थीं। उन ख़ूबसूरत गहनों एवं थालियों को देखकर मुझे परिवर्तन सेवा संस्थान , कानपुर , उत्तर प्रदेश में रहने वाली महिलाओं एवं लड़कियों का ख़याल आया। मैंनें सोचा इन ख़ूबसूरत चीजों को अगर मैं अपने कैमरे में कैद कर लूँ , तो उन लड़कियों को इस हुनर को सिखाया जा सकता है। यह कला उनके लिए जीविकोपार्जन का साधन बन सकती है , मगर इसके लिए असमां जी की सहमति आवश्यक थी , क्योंकि अपने डिजाईन की फोटो तो कोई भी सुनार नहीं लेने देता। मैंनें अपनी दुविधा असमां जी के सामने रक्खी। सबसे पहले मैंनें अपने एवं उस संस्था में रह रहीं लड़कियों व महिलाओं के वारे में असमां जी को बताया , ये भी बताया कि वो वहाँ किन हालातों से गुज़रकर पहुँची या पहुँचायी जाती हैं। शायद मेरी ज़ुबां से निकली बात मेरी आँखें भी कह रहीं थीं , तभी तो संस्था से जुड़कर जिस दर्द को मैं छ: सालों से महसूस कर रही थी , वही दर्द मुझे उस एक पल में उनकी आँखों में दिखा। " इल्म को तो जितना बाँटो उतना ही बढ़ता है। सब अपने नसीब का ही खाते हैं। मेरे पास इसका सामान नहीं है अन्यथा मैं आपको ऐसे ही दे देती। वीसा भी खत्म होने वाला है,  नहीं तो मैं आपके साथ कानपुर चलती और दो - तीन दिन में ही उन्हें ये सब कुछ सिखा देती।"-  ये शब्द थे असमां जी के। एक वादा भी किया कि अगली बार वो मेरे साथ कानपुर ज़रूर चलेंगीं और ये हुनर सबको सिखाएंगीं। उन्होंने अपने stall की photo लेने की दिल से अनुमति दी। असमां जी की मैं तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
         यहाँ एक और बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है। आगा हम कुछ कपड़ों की दुकानों पर गए । वहाँ हमने बस इतना ही पाया कि जो कारीगरी हमारे हिन्दुस्तान  में होती है वही पाकिस्तान में भी, बस नाम अलग है। जैसे - चिकन के काम में बारीक तेपची के काम को वहाँ मुल्तानी काम कहते हैं । उसी तरह एक ख़ास किस्म का बारीक कपड़ा जो यहाँ ठण्डी जगहों पर ही बन पाता है , बिलकुल उसी डिज़ाईन और उसी techture का कपड़ा पाकिस्तान में भी ठण्डी जगहों पर ही बन पाता है। यह भी कह सकते हैं कि अगर हमें पता न होता तो हम उस कपड़े को हिन्दुस्तान में बना हुआ ही समझते। जूतियों और नागरों पर  जैसी कढ़ाई यहाँ होती है बिलकुल वैसी ही कढ़ाई पाकिस्तान में भी की जाती है।
      तो अब आप ही बताएं कि हिन्द - पाक के बीच क्या अलग है ? हमें तो वहाँ जाकर एक पल को भी ऐसा नहीं लगा कि हमारे बीच सरहद की दीवार की परछाई भी हो । जितनी उत्सुकता हमें थी कि इस काम को क्या कहते हैं , तो उतनी ही उत्सुकता उस मुस्लिम भाई को भी थी जो पाकिस्तानी था। ठीक मेरी ही तरह उन्होंने भी " तेपची " नाम  को चार बार पूछकर याद किया। जो दर्द मेरे अन्दर है उन मासूम लड़कियों के लिए वही  दर्द कराची से आई असमां जी ने भी एक पल में अपने अन्दर महसूस किया।
         जागो ! मेरे हिन्दू एवं मुसलमान भाई बहनों जागो ! खुद सोचो - जब हम सबमें इन्सानियत एक है , जज़्बा और जज़्बात एक हैं , हर दर्द का रूप एक है , तो क्या हिन्दू और क्या मुसलमान ? ध्यान देने वाली  बात बस इतनी है कि इन्सान तो एक है। मुझे लगता है कि  सरहद के दोनों तरफ आवाम तो एक सा दिल रखती है और एक ही ख़्वाब दखती है अमन और चैन का। यकीन जानिए हिन्दू - मुसलमान में खींची गई यह दीवार आवाम ने तो नहीं ही खींची होगी। ये तो वो चन्द लोग होंगें जो धर्म के नाम पर अपना मतलब सिद्ध कर रहें हैं। अगर मैं कहूँ  कि ये खास तबका अस्वस्थ , बीमार एवं मानसिक विकृति का शिकार है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
      तो आईए ! संकल्प लें कि बीमार मानसिकता वाले इस खास वर्ग के मंसूबे को हम लोग जीतने नहीं देंगें और सरहद के दोनों तरफ अमन शान्ति बनाए रखने के लिए अपना अपना प्रयास करते रहेंगें। जो मैनें महसूस किया है उसे आप तक पहुँचा रहीं हूँ। लोगों के दिलों में इन्सानियत का एक मुस्कुराता फूल खिलाने की मेरी यह छोटी सी कोशिश है। आपके दिल को छुए तो एक फूल खिलाने की कोशिश आप भी करना।
                    अभी न पूछो हमसे मंज़िल कहाँ है ,
                     अभी तो हमने चलने का इरादा किया है ,
                     न हारे हैं न हारेंगें कभी
                      ये किसी और से नहीं , खुद से वादा किया है।
                                                                                       जय हिन्द

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