एक साकारात्मक अर्थ यह भी. ..... आज अपनी बात स्वयं के साथ हुए एक छोटे से हादसे से शुरु करती हूँ । यह घटना मेरे साथ घटी सन् 1995 में। मई-जून की तपती दुपहरी, यही कोई दोपहर का 2:00 बजा था । लगभग 3 बजे डॉक्टर के यहाँ से लौटते समय मैं अपने ही ख्यालों में गुम अपने आप से बातें करती चली आ रही थी - बाप रे बाप ! कितनी गर्मी है , घर जाते ही नहा कर वो गुलाबी वाला सलवार कुर्ता पहनूँगी । अरे .... लेकिन वह तो मैंने बर्तन वाले को देकर एक छोटा सा स्टील का दोंगा ले लिया था। अब तो सारे सलवार कुर्ते खत्म हो रहे हैं , कल ही जाकर 3-4 कुर्ते का कपड़ा ले आऊँगी । पर आज तो बाजार ही बंद है । हे भगवान ! अब मैं क्या करूँ? क्यों इतनी गर्मी है ? अचानक मैं रुक गई.... मेरी नज़र उस महिला पर पड़ी जो पास ही बन रहे घर के लिए गारा ढोने का काम कर रही थी। उसका तीन-चार साल का बेटा वहीं पेड़ की छाँव में बैठा रो रहा था । उस स्त्री को देखकर प्रतीत तो ऐसा होता था जैसे सद्यस्नाता हो , किंतु यह भ्रम था । सूर्य देवता के प्रकोप से वो महिला पसीने से तरबतर हो गई थी। क्योंकि मैं 1 महीने से लगातार जा रही थी इसलिए वहाँ गारा ढोने वाले लगभग हर इन्सान को पहचानने लग गई थी। मैं वहीं खड़ी होकर थोड़ा सुस्ताने लगी। उसी समय एक विचार मन में कौंधा - हमारे पास हर मौसम के लिए अलग अलग किस्म के वस्त्र हैं पर क्या इसके पास दो जोड़ी के अलावा तीसरा वस्त्र होगा ? हाँ. ..हो भी सकता है लेकिन उसे संभाल कर रखा होगा किसी शादी-ब्याह या मेले में पहनने के लिए। आज काम से जाने के बाद नहा कर पिछले दिन पहनी हुई साड़ी को पहन कर, कल काम पर फिर चली आएगी और इसे धो कर रख देगी अगले दिन शाम को पहनने के लिए । सम्भवतः यही क्रम चलता रहेगा । लानत है मुझ पर जो पुराने कपड़ों से बर्तन खरीद लेती हूँ । आभारी हूँ उस पल की जिसने मुझे यह एहसास कराया और बुद्धि दी। आज इतने वर्ष गुजर चुके हैं मैंने कभी एक चम्मच भी नहीं खरीदा पुराने कपड़ों से और तभी से हमारे लिए बेजरूरत का सामान और कपड़े मैं जरूरतमंदों और कुष्ठ आश्रम में बांट देती हूँ और इस काम में मुझे जितनी खुशी मिलती है, शायद इनाम में करोड़ों रुपए जीत कर भी वो खुशी नहीं मिलती ।
इस एक घटना ने मेरी जिंदगी का रुख ही बदल दिया या यूँ कहें कि वो लम्हा मेरे मानसिक उत्थान का एक पल था। मेरी तरह लाखों महिलाएँ ऐसी होंगी जिनके साथ कुछ ना कुछ हादसे ऐसे जरूर हुए होंगे, जिसने उनका जिंदगी के प्रति नजरिया ही बदल दिया होगा। जरूरी नहीं कि उसके लिए उन्हें बड़ा सम्मान मिला हो या कोई बड़ी पूंजी, ऐसा भी नहीं हुआ होगा कि उन्हें कोई नौकरी मिल गई हो। कहने का तात्पर्य मात्र इतना है की उन्हें समाज द्वारा सम्मान या पहचान नहीं मिल पाया होगा। वह अपनी उसी छोटी सी दुनिया में परिवार, पति, बच्चों के साथ अपनी जिंदगी को खुशी- खुशी बिता रही होंगी । इस सब के बावजूद जिंदगी से मिली सीख और अपने बदले हुए नजरिए पर जिस तरह मुझे अपने आप पर गर्व महसूस होता है , अपने जमीर के सामने मेरा स्वयं का मस्तक ऊंचा होता है , अपनी मानसिकता में उत्तरोत्तर सुदृढ़ता का अनुभव होता है , उसी तरह उन लाखों महिलाओं को भी महसूस होता होगा।
मेरा शत्-शत् नमन है उन महिलाओं को जो आज तक समाज द्वारा दिए जाने वाले सम्मान से तो वंचित रह गई मगर स्वयं की नजरों में ऊपर उठकर अपने जमीर के साथ वास्तविक अर्थों में " अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस " को चरितार्थ कर रही हैं।
धन्यवाद
नीलिमा कुमार
Thursday, 9 March 2017
" अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस " एक साकारात्मक अर्थ यह भी.....
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