किसी ने मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया और ये चन्द पंक्तियाँ उतर आयीं मेरे ज़हन में--
इन पंक्तियों का एक -एक लफ्ज़ मेरे वज़ूद का हिस्सा है, इन्हें मैंने जिया है। ये ख़्वाब नहीं हकीकत है. ......
आज के इस बचपन में
हमारा सा बचपन कहाँ ?
वो भाई और पापा के साथ
छत पर चढ़ मुंडेर पर मोमबत्ती का चिपकाना,
दीवाली की पूजा में बैठ माँ का चिल्लाना -
अरे मुहुर्त निकला जा रहा है
और हमारा अपने हाथों से बनाए उस हैलीकॉप्टर वाले कण्डील में उलझा रहना।
हमारा सा बचपन कहाँ ?
आँगन की हर नाली में कपड़ा ठूँस
उसमें वो गुलाबी रंग वाला पानी भरना
और घण्टों उस प्यारे से स्वीमिंग पूल का आनन्द उठाना,
रंग पुते हाथों से गुझिया उठा लेना
पर माँ की प्यारी चिंता भरी डांट -
एक गुझिया हमें अपने हाथों से खिलाना,
हमारा सा बचपन कहाँ ?
स्कूल का आखिरी दिन - बस्ते का बिस्तरे पर फेंका जाना
भरी गर्मी और वो पड़ोसी के बाग से आम चुराकर खाना
दिन में चार बार नहाना,
छुपन - छुपाई , गिट्टीफोड़ या ऊँच-नीच के साथ
फ़िक्र के बिना छुट्टियों का निकलते जाना ।
और आज का बचपन,
गर्मी की छुट्टियाँ
प्रतियोगिता या सलाना इम्तिहान की तैयारी में गुज़ारता है
आम को चाकू से काट प्लेट में सजाकर खाता है
शरीर के पसीने को
AC की ठण्डी हवा से सुखाता है
सर्दी के साथ गर्मी की छुट्टी को खोजता रह जाता है।
आज के इस बचपन में
हमारा सा बचपन कहाँ ?
हमारा सा बचपना कहाँ ?
नीलिमा कुमार
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