पिछले बरस
तुम्हें छुआ था , महसूस किया था ,
न जाने आज कहाँ हो ? तुम !
वो सूनी सड़क का लम्बा सफ़र
ख़ामोश , डरा सा
लेकिन एक कौतुहल भी था।
वो सफेद चादर सा उजला बदन
कुछ धुआँ तो कुछ पिघला - पिघला ,
मगर उस छुअन में कुछ कंपकपाहट भी थी।
काँपते होठों पर फिसलते - हे भगवान !
अपनी देहरी छूते ही लम्बी साँसों का वो एहसास
आज भी याद है।
फिर भी बैचेन हूँ
तुमसे मिलने को।
सर्द मौसम के हुस्नएलिबास
ऐ धुन्ध ! तुम कहाँ हो ?
तुम कहाँ हो ?
अब के बरस तुम कहाँ हो ?
नीलिमा कुमार