Thursday, 14 January 2016

अब के बरस तुम....

पिछले बरस
तुम्हें छुआ था , महसूस किया था ,
न जाने आज कहाँ हो ?  तुम !

वो सूनी सड़क का लम्बा सफ़र
ख़ामोश , डरा सा
लेकिन एक कौतुहल भी था।
वो सफेद चादर सा उजला बदन
कुछ धुआँ तो कुछ पिघला - पिघला ,
मगर उस छुअन में कुछ कंपकपाहट भी थी।

काँपते होठों पर फिसलते - हे भगवान !
अपनी देहरी छूते ही लम्बी साँसों का वो एहसास
आज भी याद है।

फिर भी बैचेन हूँ
तुमसे मिलने को।
सर्द मौसम के हुस्नएलिबास
ऐ धुन्ध ! तुम कहाँ हो  ?
             तुम कहाँ हो  ?
अब के बरस तुम कहाँ हो ?

                                         नीलिमा कुमार